इस आईपीएस की कहानी सुन नम हो जायेगी आंखे, खुशियां सब हैं, आशीष देने के लिए मां नही है..

प्रकाश राज

पैदल चला,लालटेन में पढ़ा ,मेहनत की,आईपीएस बना,माँ-बाबा का सपना पूरा किया लेकिन आज इस आशीष को ‘आशीष’ देने के लिए’माँ ‘नहीं रही…

कहाँ से शुरू करूँ,कहाँ से ख़त्म,कुछ समझ में नहीं आया । यह कहानी एक बहुत ही साधारण परिवार के बेटे की है जमुई के एक छोटे से गांव सिकंदरा (शायद आपने नाम सुना होगा) में पले बढे आईपीएस अधिकारी डॉक्टर कुमार आशीष की है आशीष के सफलता की कहानी काफी दिलचस्प है। 9 वीं की पढाई मुंगेर के संग्रामपुर स्थित सरकारी स्कूल से पूरी की,

आशीष कहते हैं उबड़ -खाबड़ रोड,हाथ में बस्ता और बस्ते में सलेट,कॉपी,किताब व दो बाई दो का बोड़ा,एक किलोमीटर तक पैदल चलकर स्कूल जाना,झाड़ू लगाना, फिर मस्त बस्ते से वो दो बाई दो का बोड़ा निकालकर बिछाना फिर पढाई करना यह सब आज भी इन्हें याद है, तकलीफ तो थी लेकिन मास्टर जी अच्छे थे,इसलिए बोड़ा पर बैठने वाली बात पर आज भी इन्हें गुस्सा नहीं आता। 

आशीष आगे कहते है बिजली तो मानो उन दिनों सपने जैसा था। लालटेन वाला युग था गांव में। 10 वीं की पढाई श्री कृष्ण विद्यालय सिकंदरा व 12 वीं की पढाई धनराज सिंह कॉलेज सिकंदरा से पूरी की। पिता ब्रजनंदन प्रसाद सिंचाई विभाग में क्लर्क थे,माँ स्वर्गीय मुद्रिका देवी ,तीन भाई व तीन बहन का पूरा परिवार था।सभी भाइयों ने संघर्ष के दौर को देखा था। बड़े भैया संजय कुमार (रेलवे में ए.एस .एम), मंझले भैया डॉ.मुकेश कुमार(आर्मी हॉस्पिटल,बीकानेर) में पोस्टेड हैं। मैं छोटा था। इसलिए सभी का सहयोग भी काफी मिला।

फिर आगे की पढाई के लिए बाहर जाने की सोचता रहा। उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाने की जुगाड़ में लगा रहा।

2001 में जेएनयू के एंट्रेंस एग्जाम में आल इंडिया टॉपर रहा।स्कालरशिप मिली और मैंने फ्रेंच विषय में नामांकन लिया। मात्र 1200 रुपए में दिल्ली में जिंदगी कैसे कटती। मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। 4 साल आल इंडिया रेडियो में काम की। आर्थिक तंगी को लेकर कभी मै बिचलित नहीं हुआ बल्कि हालात से लड़कर परिस्थितियों को अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश की। मैं डरा नहीं,लड़ा। संघर्ष के न जाने कितने बसंत को देखा होगा। 

आशीष बताते है की फ्रेंचभाषा में बी.ए, एम. ए, एम. फिल व पीएचडी की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो 2006 में फ्रांस चले गए। फ्रांस से लौटने के बाद डॉ आशीष सिविल सेवा के परीक्षा की तैयारी करने लगे, आशीष बताते हैं की 1997 में जब पहली बार सिकंदरा में डीएम राजीव पुन्हानि ने उन्हें प्रश्न प्रतियोगिता में फर्स्ट प्राइज दिया तो वो सोचते थे कि मैं भी बड़ा होकर आईएएस बनूँगा। मेरी सोच को फॅमिली व भैया का सपोर्ट मिला लेकिन सिलेक्शन आईपीएस के लिए हुआ लेकिन सोच वही कि जिस नौकरी में जाऊंगा अपना बेस्ट देने की कोशिश करूँगा। 

डॉ कुमार आशीष को बिहार कैडर मिला। उन्होंने 2012 में भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन किया । मोतिहारी में ट्रेनी रहे। जून 2014 में एसडीपीओ दरभंगा के रूप में पहली पोस्टिंग हुई। काम किया,नाम हुआ। सोशल मीडिया से लोग जुड़े और एक लंबा कारवां बनता चला गया। पहली बार 1 अगस्त 2015 को सरकार ने मधेपुरा एसपी की कमान सौंप दी । कल्चरल पुलिसिंग व कम्युनिटी

पुलिसिंग के बदौलत मधेपुरा के लोगों को अहसास कराया कि ‘मैं हूँ न’। स्पोर्ट्स के बूते युवाओं को जोड़ा। इसी बीच एसपी कुमार आशीष को ‘आशीष’ देने के लिए माँ नहीं रही। ये वो दौर था जिसने कुमार आशीष को बुरी तरह से तोड़ दिया। माँ,स्वर्गीय मुद्रिका देवी जिनके ममता के आँचल में पल बढ़ कर कुमार आशीष बड़े हुए,बुरे वक़्त को देख अपने माँ-पिता के लिए कुछ अच्छा करना चाहा। बेटा आईपीएस हो चूका था।लेकिन ईश्वर को कुछ और ही


मंजूर था। माँ चली गयी,उनकी याद आज भी उस गीत के दो बोल’रूठके हमसे कहीं जब चले जाओगे तुम,ये ना सोचा था कभी इतने याद आओगे तुम’ आशीष याद करके भावुक हो जाते है और भावना की आँसू आँखों से छलक पड़ता है। आज के ही दिन डॉ कुमार आशीष का अवतरण हुआ था, वो फिलहाल बापू के कर्मभूमि मोतिहारी के एसपी हैं।

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