```ये युद्ध हार गए तो हमारी आने वाली पीढ़ियां गूंगी बहरी और गुलाम हो जाएंगी```



अमरदीप नारायण प्रसाद

लेखक - मुशर्रफ आलम ज़ौकी

उर्दू से हिंदी अनुवाद , असरार दानिश

दुनिया का का बड़ा हिस्सा वर्तमान में कोरोना के खिलाफ युद्ध जीतने की तैयारी में है। भारत एक मात्र ऐसा देश है जो कोरोना को भूल कर मुसलमानों के खिलाफ अंतिम युद्ध की तैयारी कर रहा है। यह भी संभव है
कि लाॅकडाउन के बीच में ही, यह भी निर्णय ले लिया जाय कि मुसलमानों को अब इस भूमि पर सहन नहीं किया जा सकता है। किसी तरफ से इशारा हो जाए और जो लोग तब्लीगी जमाअत के विरोध में खड़े हैं, योजनाद्घ तरीके से मुसलमानों पर सीधे हमला करना शुरू कर दैं। फेसबुक, ट्विटर से लेकर सोशल वेबसाइटों तक, मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ सभी मोर्चे खोल दिय गए हैं। क्या हमारे पास यह पूछने की शक्ति है कि इस देश में कितने मठ हैं, कितने धाम हैं, कितने आश्रम हैं? क्या चारों धाम से लेकर आश्रम तक हर जगह सन्नाटा है? वीरानी है? कि आपके जहर उगलने का एक मात्र   कारण तब्लीगी जमाअत और मुसलमान बन गए हैं? धीरे-धीरे फासीवादी संठन भी उनके साथ हो रहे हैं जिन्होंने कभी मुसलमानों का समर्थन किया था। अब कितने लोग समर्थन करने वाले हैैं? क्या एक प्रतिशत भी मुसलमानों का समर्थन करता है? मुसलमान के नाम से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टीयाँ भी डरने लगी हैं। क्या कांग्रेस, केजरीवाल, अखिलेश, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी और पश्चिम बंगाल के लाल सलाम इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि तब्लीगी जमाअत से जुड़े लोग अचानक लाॅकडाउन की घोषणा के बाद कहाँ जाते? अब ये मासूम चेहरे दंगाई हैं, हत्यारे हैं, संप्रदायवादी हैं, भारत से लेकर बाहरी देशों में वायरस फेलाने के अपराधीे हैं। और वर्तमान स्थिति यह है कि भारत के अधिकांश हिस्से को उनसे नफरत करने के लिए मजबूर कर दिया गया है। यह नफरत सिर्फ तब्लीगी जमाअत वालों के लिए ही नहीं है बल्कि भारत में 25 करोड़ से अधिक मुसलमानो के लिए भी है। अब सवाल यह है कि हम कहां जाएं? क्या करें ? हमारे पास न तो मीडिया है और न ही चैनल है, न ही कोई राजनीतिक पार्टी है, न ही धर्मनिरपेक्ष ता के नाम पर मुसलमानों का राजनीतिक उपयोग करने वाली पार्टी। हम कह सकते हैं कि इस समय मुसलमान असहाय और बेबस है। तृतीय श्रेणी के नागरिक और अपने खिलाफ हो रही साज़िश के दर्शक हैं। लेकिन मुसलमान कब तक दर्शक बने रहेंगे? समय बदल गया है। 2006 में मीडिया गुजरात सरकार के खिलाफ थी। 2014 तक, मीडिया की समझा में भी यह बात आ गई थी कि मोदी आएंगे। भारत बदल जाएगा और उन्हें भी बदलना होगा। मोदी यह भी सोच रहे थे कि पहले उन्हें सिंहासन पर बैठना होगा। इसके बाद मीडिया को हाथ में लेना होगा। सिंहासन कैसे प्राप्त करें, यह गणना स्पष्ट थी। 25 करोड़ मुसलमानों कोे अलग करो और एक सौ करोड़ लोगों का वोट प्राप्त कर लो। मोदी ने टोपी नहीं पहनकर प्रभावी संकेत दिया और हिंदू राष्ट्र के निर्माण का सिकका चल पड़ा। पांच साल में गुुजरात जैसा अनुभव आसान नहीं था। इसके लिए राजनीति की दूसरी पारी की आवश्यकता थी। गुुजरात माॅडल दूसरी पारी की शुरुआत में पूरी तरह से प्रकट हो गया। बिकाउ मीडिया को खरीद लिया गया और जहर की खेती शुरू कर दीे गई। भारत जलने लगा। दंगे भड़कने लगे। लोकतं= और संविधान पर खतरा मंडराने लगा। काला कानून आने के बाद लोगों ने अपनी आँखें खोलीं। युवा सड़कों पर उतर आए। जे एन यू, जामिया और शाहीन बाग आंदोलन ने मोदी को हिला दिया। सरकार ने पुलिस लगा दी। गीलीबारी की गई, लेकिन आंदोलन में शामिल लोग हिंसा से दूर रहे। उस समय, अपनी भाषा में मोदी ने स्पष्ट रूप से संकेत दिया कि यदि उनका प्रयोग विफल रहा, तो हिंदू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकेगा। यदि शाहीन बाग प्रयोग सफल हुआ तो पुराना भारत वापस आ जाएगा। कोरोना ने सरकार को तब्लीगी जमाअत का तोहफा दिया और सरकार हारते हारते जीत के करीब पहुंच गई। हे सृष्टिकर्ता, यह भूमि तंग हो रही है। ये गाज़ी और तेरे रहस्यमयी बन्दे जिन्हें तुने बख्शा था ज़ेब , खुदाई, आज रक्तरंजित हो रहे है, अपमानित हो रहे हैं।
क्या वह दिन दूर है जब हम जीवन से काट दिये जाएंगे? नौकरियां, होटल, निजी छेत्र हर जगह हमारे लिए दरवाजे बंद कर दिये जाएंगे। छः वर्षों में होने वाली कुछ और घटनाओं पर एक नज़र डालें। पिज्जा डिलीवरी बाॅय ने एक मुस्लिम घर में डिलीवरी देने से मना कर दिया था। एक कैब मैन ने एक मुस्लिम यात्री को रास्ते ही में यह कहते हुए उतार दिया कि वह मुस्लिम सवारी नहीं ले जाएंगे। एक डाॅक्टर ने एक मुस्लिम मरीज को देखने से इंकार कर दिया। कल्पना कीजिए कि यदि बहुसंख्यक समुदाय के लोगों ने वाणिज्य में भेदभाव करना शुरू कर दिया और इस तरह की घोषाएं लगातार मुस्लिमों से दूरी बना, रखने के लिए सोशल वेबसाइटों पर आ रही हैं, तो आने वाले दिनों में स्थिति क्या हो जाएगी? अगर स्कूल और काॅलेज में मुस्लिम बच्चों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाने लगे तो आप क्या करेंगेे? नागरिकता संशोधन कानून का बुरा प्रभाव मुसलमानों के रोजगार और नौकरी पर भी पडे़गा। निजी क्षत्रों में इसकी शुरूआत हो चुकी हैै। यदि बैंक दिवालिया हो जाते हैं, और जैसा कि पहले कहा गया है, बैंकों को ग्राहक के पैसे का उपयोग करने की छूट दी जाएगी। अगर एसा होता है तो ज्यादातर पीड़ित मुस्लिम होंगे। जब आप दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाते हैं, तो आपके साथ भी ऐसा ही हो सकता है। एक और बात, जिसकी आशंका है। सरकार इन मामलों में बेशर्म और उदासीन  है। जब विरोध की आवाज कमजोर हो जाएगी तो यह उदासीनता मुसलमानों के खिलाफ क्या क्या कानून लाएगी और शोषण के लिए क्या क्या करेगी अभी कहना मुश्किल है, लेकिन सारे रास्ते मुसलमानों की कब्र  से होकर ही जाते नजर आ रहे हैं। हमारे पास क्या है? कुछ भी नहीं, जो अखबार हैं अधिकतर काॅरपोरेट सेक्टर  के अधिन हैं और जो निजी समाचार पत्र हैं, किसी तरह से प्रकाशित किये जा रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद हमने कभीे नहीं सोचा कि हमारा अपना चैनल हो। हमारे पास अखबार हों। हम उन खबरों को दिखा सकें जिन्हें छुपाने का प्रयास किया जाता है। मैंने दस साल इसी उम्मीद में बिता, हैं, कि हमारा भी अपना चैनल हो।  क्या हैदराबाद, बैंगलोर, अजीम प्रेम जी जैसे लोग और नवाब, धनवान लोग हमारे पास नहीं हैं?मैंने प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार किया। हजारों लोगों से मिलने के बाद भी असफल रहा। मुझे इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का पैंतीस साल का अनुभव है। तब मुझे यह आभास हुआ कि न्यायाधीशों और राजनेताओं का अपना चैनल भी है, लेकिन कौन परवाह करता है? कितने लोगों की पहुंच है, हम अभी भी इस बात से अनजान हैं कि आने वाले दिनों में हमारे साथ क्या हो सकता है और इसके लिए हमारे पास सबसे अच्छा मीडिया का होना जरूरी है। सरकार बहुत ही चुपचाप कोरोना के बहाने थाली बजाने, अंधेरे में दीया जलाने जैसे कार्यक्रमों के तहत हम पर अपने स्वयं के रीति-रिवाजों को लागू करने की कोशिश कर रही है। क्या हम अपनी हार स्वीकार करते हैं? हम एसी जगह पर हैं जहां अंधकार के अलावा कुछ नहीं है। हालात इस हद तक बदतर हो सकते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां गूंगी, बहरी और गुलाम बनकर पैदा होंगी।
एक मार्ग मुंबई उर्दू से होकर जाता है। यह एकक गंभीर और मानक  समाचार पत्र है जिसे आसानी से अंग्रेजी समाचार पत्रों के साथ रखा जा सकता है। फिर इस समाचार पत्र को उसी नाम से हर राज्य में प्रकाशन का काम शुरू क्यों न किया जाए। पहला रास्ता दिल्ली से होकर गुजरता  हैै। दिल्ली में सिर्फ तीन या चार पेज तैयार हों बाकी मुंबई से ले लिये जाएं और इसको लखनऊ, पटना, हैदराबाद और कोलकाता से एक साथ प्रकाशित किया जाए। ध्यान रखें कि इस यात्रा को आगे समाचार चैनल तक पहुंचना है। समूह संपादक की जिम्मेदारी श्री शकील रशीद की हो। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दिल्ली और अन्य राज्यों से समाचार पत्र के प्रकाशन पर होने वाले खर्च के लिए लोगों के साथ चर्चा की जाए। लक्ष्य को समझाया जाए। मुझे इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में 35 साल का अनुभव है। यह काम बड़े पैमाने पर हो सकता है।  सिर्फ कोशिश करने भर देर है। संभव है कि हमारी इस कोशिश के बाद और भी कुछ अच्छे अखबार या अच्छे चैनल सामने आजाएं। सवाल यह है कि हम कैसे लड़ें। हमारे पास कोई हथियार नहीं है। मीडिया से बड़ा कोई हथियार नहीं है। जब अजीम प्रेम जी कोरोना के लिए 50,000 करोड़ रुपये निकाल सकते हैं, तो क्या अलअमीन या शाहीन, या उर्दू के बड़े संस्थान, संगठन, मुस्लिम उद्योगपति इस बडे़ ओर महत्वपूर्ण काम में साथ नहीं देंगे? इसके लिए हमें उद्देश्यों के साथ एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट की भी आवश्यकता होगी। अब हमें मजबूत होने की जरूरत है। हमारे सामने जो दो-चार उर्दू चैनल हैं, उन्हें कोई नहीं देखता। इसका कारण भी भाषा है, इसका कारण अच्छी स्क्रिप्ट और प्रस्तुति की कमी है। इसलिए अखबार की अच्छी खबरों के साथ हमें मीडिया चैनलों की ओर भी कदम बढ़ाना होगा। मैं प्रत्येक कदम के साथ चलने के लिए तैयार हूं।
हम खराब मौसम के शिकार हैं , ऐसी स्थिति में हमें मजबूत मीडिया की जरूरत है। और हम चाहें तो यह कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है।
असरार दानिश
अध्यक्ष
ऑल इंडिया मुस्लिम बेदारी कारवां समस्तीपुर

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